Thursday 20 April 2017

एक महिला के दर्द ने बना दिया जगत सिंह को ‘जंगली‘।

मेरी बातों को जंगल के शेर-बाघ तो समझ लेते हैं लेकिन लोग नहीं समझ पाते हैं।’’ ये दर्द वही बयां कर सकता है, जिसको जंगल से प्यार हो। ऐसे ही एक शख्सयित हैं जिन्हें  लोग ‘जंगली’ कहकर पुकारते हैं। लेकिन वे इसको बुरा नहीं मानते, बल्कि इसको एक सम्मान के साथ धारण करते हैं। कहते हैं कि जंगल को नष्ट करना तो आसान है लेकिन उसको बनाना बहुत ही मुश्किल काम है। ऐसा ही कुछ काम किया है उत्तराखण्ड के ग्रीन एंबेसडर जगत सिंह ‘जंगली’ जी ने।
हर वर्ष हम पर्यावरण और वन बचाओ पर कितने ही सेमिनार, संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं। उस दिन तो सभी अपने दर्द को सांझा करके चले जाते हैं, लेकिन उसके बाद क्या? उनका काम सिर्फ एक दिन लेक्चर देने तक ही था क्या? राजनेता भी जन-जन तक संदेश पहुँचाते है, लाखों पेड़ भी उनके द्वारा रोपित किये जाते हैं और संकल्प लेते हैं कि इन सभी पेड़ों की रक्षा हम करेंगे। पर्यावरण बचाने में अपना योगदान दे सकेंगे। लेकिन वे पेड़ कभी नहीं बन पाते हैं, उनको तोड़के फेंक दिया जाता है। हां, इतना जरूर है कि वह राजनीति दल इसे अपने चुनावी प्रचार-प्रसार में जरूर जिक्र करता है कि हमने इतने पेड़ लगाकर वल्र्ड रिकाॅर्ड बनाया और पर्यावरण को स्वच्छ करने में योगउान कर रहे है। जैसा कि हाल ही में उत्तर प्रदेश में सपा शासन ने किया था। लेकिन समाज में कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिनको पेड़ लगाने के लिए किसी वन दिवस की आवश्यकता नहीं होती है, उनके लिए हर दिन पर्यावरण को बचाने का दिन होता है। ऐसे ही पर्यावरण प्रेमी हैं जगत सिंह ‘जंगली’ जी।
मैं यहां एक ऐसे व्यक्ति की बात कर रहा हूँ जिसने कभी हारना नहीं सीखा। जो बिना लोभ के समाज के लिए कार्य करता रहा। जिस उम्र में हम नौकरी के लिए पागलों की तरह दौड़ कर रहे हैं, उस आयु में उन्होंने नौकरी छोड़कर गांव में आकर जंगल बसाने की सोची। सोचिए वो कैसा विचार होगा? ऐसे विचार आने वालों को तो लोग पागल ही कहेंगे, जगत सिंह को भी लोगो ने ऐसा ही किया लेकिन आज दुनिया उनके कार्य को सलाम कर रही है। जगत सिंहजी जब नौकरी से छुट्टियों में अपने गांव आए तो उनको  पहाड़ों में एक महिला की चोट के बारे में सुना तो उनके दिल में एक टीस बैठ गई कि गांवों से  जंगल दूर होने के कारण महिलाओं को चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी और पशुओं के लिए चारा लेने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसा देखकर जगत सिंह जंगली जी ने अपने गांव, कोटमल्ला में एक जंगल बनाने की ठान लिया। उसी वक्त जगतजी ने 24 वर्ष की आयु से एक ऐसा जंगल बनाने में लग गए जो प्रकृति के लिए अनुकूल हो। जगत सिंह जंगली ने 2 हेक्टेयर ही भूमि पर ऐसा वन खड़ा किया है जो पूरे देश के लिए एक ऐसे माॅडल के रूप में उभरा है जो कई और जगह पर इसको लागू किया जा रहा है। जगत सिंह जंगली का मानना है कि पहाड़ के आस-पास अगर मिश्रित वन होंगे तो गांव के लोगों को चारे-लकड़ी लाने में परेशानी नहीं होगी, उन्होंने सूखी पत्तियों में गोबर डालकर जैविक खाद का भी निर्माण किया है। उन्होंने ऊबड़-खाबड़ पथरीली को ही हरा-भरा नहीं किया, बल्कि पर्यावरण और इस क्षेत्र के जाने-माने वैज्ञानिकों की सोच बदल डाली। जगतजी ने अपने 40 सालों में अब तक  60 प्रकार के प्रजातियों के 40,000 पेड़ों को लगाया और 40 प्रकार की घासों को लगाया।
उत्तराखण्ड के जंगलों में हमेशा यही शिकायत रहती है कि यहां पर आग बहुत लगती है । क्योंकि उत्तराखण्ड के जंगलों में चीड़ के पेड़ बहुत हैं जो आग बहुत जल्दी पकड़ती है। जब पूरे उत्तराखण्ड के जंगल आग से धधक रहे थे, तब सिर्फ जगत सिंह जी का ही एकमात्र जंगल था जहां आग नहीं थी। जगत सिंह ने अपने जंगल को एक मिश्रित जंगल के रूप में बनाया है जहां हर प्रकार के पेड़ हैं। यहां पर हमें जैतून, ब्रह्मकमल, बुरांश, अश्वगंधा और एलोवेरा जैसे पेड़ मिलते हैं, जो जंगल के लिए उपयोगी भी हैं और ये आग के प्रतिकूल भी होते हैं, जो जल्दी आग नहीं पकड़ते। जगत सिंह जंगली का यह भी कहना है कि उत्तराखण्ड के जंगलों में गार-गदेरे भी नदियों में एक प्रकार से सहायक नदी के रूप में कार्य करते हैं। हम सोचते हैं कि नदियों में पानी ग्लेशियर के माध्यम से आता है लेकिन जगत सिंह जी का कहना है कि ग्लेशियर हमेशा नहीं पिघलते, नदियों में पानी को बढ़ाने के लिए गार-गदेरे भी अपनी भूमिका निभाते हैं। गार-गदेरों पर कोई ध्यान नहीं देता है जबकि हमें नदियों को बचाने के लिए गार-गदेरों को भी बचाना पड़ेगा।
जगत सिंह जंगली जी का कहना है कि पहाड़ों में मिश्रित वनों के लगाने से जंगल से मृदा अपरदन को तो बचाया ही था, साथ साथ इसने नदी के जल स्रोत को भी बढ़ाने में  सहायता की है। जगत सिंह को ऐसे कार्यों के लिए अब तक छोटे-बड़े 36 अवाॅर्ड मिल चुके हैं, लेकिन वह अपना सबसे बड़ा अवाॅर्ड ‘जंगली’ की उपाधि को मानते हैं जो उन्हें एक छोटे स्कूल में मिली थी। जगत सिंह जी का कहना है कि वह अपने काम से खुश हैं, उनके अपने काम पर आज खुशी होती है कि उनके इस माॅडल को आज हर कोई अपना रहा है। अलग-अलग विश्वविद्यालय के बच्चे और शोधार्थी उनके पास इस जंगल को देखने आते हैं। जगत सिंह ‘जंगली’ जी का कहना है कि हमने तो देश को जलवायु परिवर्तन का समाधान दे दिया है। लेकिन अब हमारी सरकार का काम है वह पर्यावरण के लिए एक ठोस नीति बनाए और उसको सही से लागू करे। क्योंकि हमारी राजनीति की एक ऐसी विडंबना है कि हमारी सरकार एक तो सोचती बहुत है और दूसरी यह नीति तो जल्दी बना देती से लेकिन इसको ठोस तरीके से कैसे करवाया जाए? ऐसा कम ही देखने को मिलता है।
जंगली जी का मानना है कि अगर सरकार इस मिश्रित वन के माॅडल को उत्तराखण्ड सहित पूरे देश में लागू करे तो पर्यावरण संरक्षण के साथ वनों को और अधिक उत्पादक बनाने में एक क्रांतिकारी कदम होगा। जगतजी का मानना है कि जंगल हमें स्वरोजगार करनेद का माध्यम देता है लेकिन हम स्वयं इसे ठुकरा देते हैं। उनका कहना है कि आज का मनुष्य बीमारियों से घिरा हुआ है, जबकि बूढ़े-पुराने लोग अधिक उम्र होने पर भी पूर्ण तरीके से स्वस्थ रहते हैं क्योंकि वे लोग प्रकृति-जंगल से जुड़े हुए हैंै। उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है महँगी-महँगी दवाईयों की, उन्हें तो जंगल की घास मिल जाएं उसी से ठीक हो जाते हैं। इसलिए आज हमें भी जंगली जैसे बनने की आवश्यकता है जो एक बार ठान लें तो करक ही दम लेते हैं। हमने कागजी कार्य तो बहुत देख लिए लेकिन जमीन पर जो कार्य उतार सके उसे ही जंगली जैसी उपाधि दी जाती हैं। हमें इस माॅडल को ऐसे फैलाना है जो सिर्फ किताबों में ना रह जाए बल्कि यह लोगों के द्वारा कार्यों में शुमार हो जाए। इसके लिए हमें एक सोच की आवश्यकता है, जो हमें हौसला देती है, कार्य को अंजाम तक पहुँचाने तक दृढ़ शक्ति देती है। जंगली जी ने हम सबको बता दिया कि प्रकृति से बड़ा कोई शिक्षक नहींे। इसलिए हमें प्रकृति से दूर नहीं, प्रकृति से जुड़े रहना चाहिए।








Sunday 16 April 2017

सफल व्यक्तित्व की कठिनाईयों से भरी यात्रा

               आओ हम भी लौटाएं कुछ मासूमों का बचपन

खुशी क्या होती है? हम अभी तक यही सोचते थे कि अपने लिए कुछ पाने के बाद जो मुस्कान आती है, मेरे लिए उससे बेहतर खुशी हो ही नहीं सकती थी। लेकिन जब से देव संस्कृति विश्वविद्यालय के पंचम दीक्षांत समारोह के सांस्कृतिक कार्यक्रम में नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की प्रखर वाणी को सुना। उन्होंने बताया कि जब हाईकोर्ट ने उन 36 को आजाद कर दिया, तब मैं उन्हें पैदल अपने आॅफिस ले जा रहा था। उनकी आजाद होने की खुशी को देखकर लग रहा था कि मैं उन्हें आजाद करके नहीं लौट रहा हूँ, बल्कि उन्होंने मुझे आजाद किया है। जब उनकी आजादी की पहली मुस्कान देखी तो वह खुशी  ऐसी थी जैसे किसी मां को अपने बेटे से मिलने की खुशी होती है। वह आजादी का खुशी से मिलन था। उनकी खुशी के अनुभवों को सुनकर मुझे  अपनी खुशी मुझे ओछी लगने लगी। मुझे लगा कि यही है वास्तविक खुशी। मुझे उसी वक्त लगा कि मेरा देव संस्कृति विश्वविद्यालय में आना सफल हो गया, मैं उनके उन अनुभवों को सुनने का साक्षी बना, जहां से उन्होंने अपने ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की शुरूआत की थी।
आज हम 21वीं सदी में भारत को देखते हैं तो हमें अपने देश पर गर्व होता है कि हम आज इतने सक्षम हैं कि हम जमीन से लेकर आकाश तक जा सकते हैं। आज हमारे पास सूचनाओं का इतना भंडार हो गया है कि पूरी दुनिया हथेली के समान सिमट गई है। हम भौतिक विकास में बहुत आगे बढ़ चुके हैं लेकिन इन सबके बावजूद भी आज हम जिसमें पिछड़ रहे हैं वह है मानवता। हम उस महीषी स्वामी विवेकानंद जी के देश से हैं जिन्होंने शिकागो में जाकर पूरी दुनिया को भारतीय मानवता का पाठ पढ़ाया था। लेकिन उसी महान व्यक्ति के देश के लोग मानवता को तार-तार करने पर तुले हुए हैं। मैं कोई सुनी-सुनाई या उड़ी-उड़ाई बात नहीं कर रहा हूं। अगर आपको मेरी बातें गलत लगती हैं, तो ज्यादा नहीं आज का समाचार-पत्र पढ़ लीजिए या टी.वी. की हेडलाइन ही देख लीजिए। दोनों में आपको मानवता का हनन ही देखने को मिलेगा। ये बलात्कार, बाल उत्पीड़न जैसे मामले में कहीं न कहीं हमारी भी गलती है। हम सब हर रोज ऐसी खबरें पड़ते हैं जिसमें रिश्ते और मानवता को बार-बार तार किया जाता है। लेकिन हम ये सब देखते हुए आवाज क्यों नहीं उठाते हैं? इसके दो ही कारण हो सकते हैं कि ऐसा हमारी माता-बहिन के साथ तो हुआ नहीं है, हम क्यों इसमें पड़े? या फिर हमने यह गंदे कृत्य इतने देख-सुन लिए हैं कि हमें यह नाॅर्मल लगता है। हम अपने आस-पास देखते ही होंगे कि कितने ही बच्चों से गरीबी, पिछड़ेपन, जाति की आड़ में फायदा देखते हुए उन मासूमों से मजदूरी करवाई जाती है। जिस उम्र में उनके हाथ में किताबें होनी चाहिए, उस वक्त उनके हाथ में कटोरा पकड़ा दिया जाता है। हम बार-बार सुनते हैं कि जगह-जगह कोठे और वैश्याओं के घर हैं, लोग गुलाम बनाये जा रहे हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि ये लोग कहां से आ रहे हैं? क्या ऐसे कृत्य वे स्वयं करना चाहते हैं, नहीं। कौन ऐसा होगा जो अपनी जिंदगी को  नरक बनाना चाहेगा। हाल ही में सरकार द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई थी जिसमें बताया गया था कि भारत में पश्चिम बंगाल, मानव तस्करी के मामले में सबसे आगे है। हम सब यही सोचते हैं कि आज के दौर में कहां गुलामी की जंजीरें होंगी लेकिन यह भी लोकतंत्र की एक ऐसी तस्वीर है जिसे बहुत लोग जानते भी नहीं हैं। आज महानगरों की लड़कियां भी अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं कर पाती हैं हम दिल्ली के ‘‘दामिनी केस’’ में देख चुके हैं। यह सब देखकर हम चुप ही रहेंगे क्योंकि हम भारतीयों की प्रवृत्ति शालीनता की है ना। लेकिन कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो इन कृत्यों को देखकर चुप नहीं रहते हैं बल्कि उसके लिए आवाज उठाते हैं और लड़ते हैं। ऐसे ही व्यक्ति हैं- ‘कैलाश सत्यार्थी’।          
मैं दो साल से देव संस्कृति विश्वविद्यालय में पढ़ रहा हूं।  हर सप्ताह कुलाधिपति डा.प्रणव पण्डया  गीता और ध्यान की कक्षा में हमें बताते हैं कि हमें धर्म और कर्म के बारे में बोलने वाले नहीं, बल्कि कार्य करके समाज को बदलने वाले व्यक्ति चाहिए। ऐसे व्यक्ति जो संकट में डरे नहीं बल्कि डटे रहे। जिन्होंने धर्म और कर्म को जिया हो। जब मैं कैलाश सत्यार्थी जी को सुन रहा था तो मुझे यही लगा कि ये तो उन्हीं व्यक्तियों में से हैं जो सिर्फ समाज के कल्याण के लिए बने हैं। ये सब जानते हैं कि कैलाश सत्यार्थी जी को नोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन वहां तक पहुंचने में उन्हें कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, ये कम ही लोग जानते हैं। जब वह 26 की उम्र में नौकरी छोड़कर समाज सेवा की ओर आ रहे थे, तब उनको अपनी माता की ममता को छोड़ना पड़ा। लेकिन उनको समाज के लिए  बड़ा करना था। महापुरूष रिश्तों से अधिक समाज को अहमियत देते हैं और यही कैलाश सत्यार्थी जी ने किया। जब वह बच्चों को बचाने के लिए जाते थे तो वे वहां से पिटकर आते थे इसी कारण उनके पूरे शरीर में चोट ही चोट हैं, लेकिन वो उन चोट खाने के बावजूद कभी डरे नहीं, वो डटे रहे और अपने बचपन बचाओ आंदोलन से 85,000 बच्चों को अपना बचपन दिला दिया है। लेकिन एक बड़ा सवाल सामने था कि इन बच्चों को शिक्षा कैसे दिलाई जाए? शिक्षा के बिना ये समाज से कटकर पीछे चलेंगे। लेकिन समस्या यह थी कि उस वक्त शिक्षा मौलिक अधिकार तो थी नहीं, इसलिए सरकारी स्कूल इनका दाखिला नहीं कर रहे थे। तब उनके पास एक ही विचार आया कि शि क्षा अगर मौलिक अधिकार बन जाए तो ये बच्चे भी शिक्षा पा सकेंगे। शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए कन्याकुमारी से दिल्ली तक एक यात्रा निकाली गई, जिसको 163 सांसदों ने अपना समर्थन दिया और इसी कारण 2001 में संसद में यह प्रस्ताव रखा गया और शिक्षा मौैलिक अधिकार बन  गई शिक्षा।                  
कैलाश सत्यार्थी के इस बचपन बचाओ आंदोलन के कारण ही 36 साल पहले पूरी दुनिया में जो  गुलामी में जकड़े बच्चों की संख्या 26 करोड़ थी वो घटकर 16 करोड़ हो गई है। इसी तरह भारत में भी सवा करोड़ से घटकर 45 लाख बची है। ये तो कैलाश सत्यार्थी जी की समाज में बदलाव लाने की गाथा है। उसके बावजूद भी हमारे  पास कुछ सवाल छूट जाते हैं कि यह कैसी मानवता है जहां बच्चों को कैद करके बेचा जा रहा है। हमारे प्रशासन और सरकार की भी कमी है कि देष में 18 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, फिर क्यों बाल मजदूरी करवाई जा रही है? हम बाल मजदूरी का विरोध तो करते हैं लेकिन अब तक इसमें सजा कम ही मिलती हैं। कहीं न कहीं शासन इसको अनदेखा करके कई बच्चों के बचपन को उजाड़ रही है। हम सभी आम नागरिक हैं हमारा भी काम है कि इसको कम से कम अपने क्षेत्र में रोका जाए। हम सभी आज सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं हम अपनी बात को प्रशासन तक आसानी से पहुँचा सकते हैं। हम सभी ढाबों और होटलों में खाने जाते हैं तो हमें वहां कई ‘छोटू’ मिल जाते हैं। हमें उनके बचपन को लौटाने में मदद करनी चाहिए और वह सब तभी होगा जब हमारे भीतर भी एक कैलाश सत्यार्थी आ जाए। कैलाश सत्यार्थी जी का स्वयं कहना है कि अब बहुत हो गया ये अत्याचार अब इसको बदलना चाहिए। हमें भी कुछ ऐसा करना चाहिए कि उन मासूमों को उनकी खोई मुस्कान लौटा सकें। उनके द्वारा सुनाई गई दुष्यंत की कुछ पंक्तियां यही व्यक्त करती हैं -
                                               ‘‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
                                                  इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
                                                   सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
                                                   सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
                                                    मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
                                                   हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।’’